आत्महत्या जो कि एक लेटिन शब्द है,मगर इसका सर्वाधिक भुक्तभोगी भारत है..।।
क्या आपको पता है दुनिया में सर्वाधिक आत्महत्या कंहा होती है..??
हां भारत में..।। उस भारत में जिस भारत मे आत्महत्या को हेय दृष्टि से देखा जाता है,और कानूनन जुर्म है..।।
आत्महत्या को कभी भी एक सभ्य समाज स्वीकार नही कर सकता।। प्राचीन-काल से ही आत्महत्या करने वाले को हेय दृष्टि से देखा जाता है।
-प्राचीन एथेंस शहर में आत्महत्या करने वालों को शहर के बाहर दफनाया जाता था।
-1670 में फ्रांस शासक लुई-14वॉ के समय मे आत्महत्या करने वालों के शवों को सड़क पर घसीटा जाता था, और बाद में कचड़े के ढेर पर फेंक दिया जाता था।
- ईसाई धर्म मे जो इस तरह का प्रयास करता था उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था,और जो मर जाते थे उसे कंही और दफनाया जाता था।
-इस्लाम धर्म आत्महत्या की इजाजत नही देता।।
-वंही सनातन धर्म मे इस तरह का विचार आना भी हमें पाप का भागीदार बना देता है।।
WHO(विश्व स्वास्थ्य संगठन) के अनुसार चीन,रशिया,अमेरिका, जापान,दक्षिण कोरिया से भी ज्यादा आत्महत्या भारत मे होती है।
विश्व मे 1 लाख लोगों पर 11.6 लोग आत्महत्या करते है,वंही भारत मे 1 लाख पर 11.3 लोग(NCRB के अनुसार) आत्महत्या करते है।
2020 में भारत में रोजाना 458 लोगों ने आत्महत्या की है,यानि एक साल में 1,53,502 लोगों ने.. ये आंकड़े NCRB(नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) के है अगर आप लसेंट के आंकड़े देखेंगे तो और ज्यादा भयावह है।।
भारत में सर्वाधिक आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश और पक्छिम बंगाल के है।।
WHO के अनुसार भारत मे महिलाओं का आत्महत्या दर 1लाख पर 16.4(इनमें से 70% यौन-शोषण,दहेज-उत्पीड़न,पारिवारिक-शोषण के कारण) है जबकि पुरुषों का 1 लाख पर 25.8 है।
सबसे ज्यादा भयावह और अफसोस जनक ये है कि हमारे 1 छात्र हरेक 55 मिनट में आत्महत्या कर रहे है।
जिनके ऊपर देश का भविष्य है, जिनके ऊपर भारत के संजोने की जिम्मेदारी है,जिनके ऊपर समाज के साथ परिवार को सुदृढ़ करने की जिम्मेदारी है।वो आखिर क्यों इस तरह से अपने प्राण को त्याग रहे है..??
इसके लिए जिम्मेदार कौन है..??
हमारा समाज,हमारा परिवार या हमारी शिक्षा व्यवस्था..??ये तीनों ही जिम्मेदार है।
मगर सर्वाधिक जिम्मेदार हमारा शिक्षण-व्यवस्था है,हमारी शिक्षा-व्यवस्था किस और जा रही है,जो हम अपने छात्र को दबाब सहने की क्षमता विकसित नही कर पा रहे है। 80% लोग जो आत्महत्या करते है वो शिक्षित है और उनका उम्र 14-35 के बीच मे ही।।
नैतिक शिक्षा के नाम पर हम अपने छात्र को क्या सीखा रहे है,जिंदगी एक रेस है,अगर पिछड़ गए तो कंही के नही रहे। क्या एक रेस हारने के बाद दूसरे रेस में हम भाग नही सकते,अगर उसमे भी अगर हम हार गए तो एक और प्रयास करेंगे,अगर उसमें भी हार गए तो क्या हुआ आने वाली पीढ़ी को तो सीख दे सकते है..।।
दरसल हमारा समाज, हमारा परिवार, हमारा शिक्षण-व्यवस्था हमें हारना नही सिखाता..।। आखिर क्यों..??
जीतने के लिए हारना जरूरी नही है,मगर अपने जीत को और बेहतरीन बनाने के लिए हार का अनुभव जरूरी है।। हां हार को स्वीकार कर उसे आत्मसात कर लेना अभिशाप है.. हार एक बेड़ियां की तरह है,उसे तोड़ना जरूरी है,अगर नही तोड़े तो उसे स्वीकार करते देर नही लगेगा।।
जो इस बेड़ियां को भी नही स्वीकार कर पाते वो आत्महत्या को गले लगा लेते है..।। और हमारा समाज,परिवार और शिक्षण-व्यवस्था उस मासूम को ही दोषारोपित कर देता है..।।
आखिर क्यों..??इसके लिए जिम्मेदार कौन है..?
इसके लिए एक नही कई जिम्मेदार है-
परिवार,समाज,शिक्षण-व्यवस्था,
मीडिया/सोशल मीडिया-ये तो महिमा-मंडन करती है,आज से 10 साल पहले 14 साल के बच्चों को ये तक मालूम नही होता था कि आत्महत्या होता क्या है,मगर आज वो इन मीडिया/सोशल मीडिया के कारण आत्महत्या कर रहे है।
पूंजीवाद-वर्तमान समय मे इसका भी अहम योगदान है, लोगों के अंदर कुंठा का भाव उत्पन्न करवाने में। वर्तमान समय में सबकुछ का बाजारीकरण हो गया है,सबकुछ को हासिल करना मुमकिन नही है,मगर बाजारबाद सबकुछ को हासिल करने के लिए हमें प्रेरित करता है,और जिसे हम हासिल नही कर पाते उसके लिए कुंठा उत्पन्न होती है।और ये कुंठा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है,और हम अवसाद में घिर जाते है,और इस ओर कदम उठाने के लिए अग्रसर हो जाते है।।
आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध से कैसे सामना किया जा सकता है..??
Sathik
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