हिम्मत नही है कि फोन करू,
या फिर मैं,निर्लज्ज हूँ..
शायद निर्लज्ज ही हूँ,
इसिलए तो असफलताओं की इमारत बनाये जा रहा हूँ।।
इस इमारत में,
मेरा ही नही , मेरे माता-पिता का भी दम घुट रहा है..
मेरे चाहने वालों को भी जख्म हो रहा है..।।
कब इन इमारतों को धराशायी करके,
सफलता का इमारत गढुंगा मैं..??
इन असफलताओं की बढ़ती हुई इमारतों की तरह,
मेरे उम्र के साथ,मेरी आकांक्षाएं भी धूमिल हो रही है...।।
शायद मेरी सफलता ही..
सिर्फ और सिर्फ मेरी सफलता ही...
इन असफलताओं के इमारतों के साथ मेरे ढलते हुई उम्र को भी धराशायी कर सकता है..
मगर कब..??
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