जो किसी से कभी उलझा ना होगा..।
•बचपन(3-12वर्ष की आयु) में तो सभी उलझते है..
उलझना भी चाहिए...क्योंकि हम जबतक उलझेंगे नही, तबतक उलझने और सुलझने की अहमियत कैसे पता चलेगा..।।
•मगर जब हम युवावस्था(13-30) में आते है..
तब भी उलझते है..
इस समय हम 2 तरह से उलझते है..
¡.पहले, अपने अधिकारों और जब अन्याय होते हुए देखते है तब उलझते है..जो सही ही नही,बल्कि पूर्णतया सही है..।
¡¡. दूसरा,हम यू ही उलझते है..किसी का मजाक उड़ाते हुए,तो अपने ईष्या, द्वेष,लालसा,स्वार्थ और अपनी अहम के हितों के लिए..। जो कि बिल्कुल गलत है,अगर इसे युवावस्था में पहचान कर इस कमियों को दूर नही किया तो ये ताउम्र हमारे साथ रहता है..।
•मगर जब हम प्रौढ़ावस्था(31-60) में आते है तो हममें से अधिकांश लोग उलझने से बचने लगते है,जो कि बिल्कुल सही है..।क्योंकि हम जब किसी से उलझते है,तो सिर्फ अपना समय ही जाया नही करते बल्कि अपने व्यक्तित्व का भी ह्रास करते है..।
आपने अक्सरहाँ सुना होगा..
"यार मैं तो सोचता था ये तो बड़ा अच्छा आदमी है,
मगर ये तो बड़ा ..........निकला"।
आखिर ऐसा क्यों हुआ..
क्योंकि उन्होंने उलझने का जिम्मा उठाया..
बिना ये जाने की आगे वाला व्यक्ति कैसा है..।।
"उलझना बुरा नही है,आप किस से,और क्यों उलझते है ये महत्वपूर्ण है.."।
प्रौढ़ावस्था में आने के बाद अक्सरहाँ लोग उलझने से बचते है..
तबतक जबतक कोई आंच व्यक्तित्व पे ना आये..इस समय भी वो कोई रास्ता तलाशते है..बिना खुद आगे आये इसे सुलझाने की कोशिश करते है..ऐसे ही लोग सफल होते है..।।
हां कभी-कभी इसका खामियाजा उठाना पड़ता है..क्योंकि कुछ लोग आपका फायदा उठाते है..मगर कोई बात नही..
आप सुकून से जीते है,और वो ताउम्र दुविधा में जीते है..।।
आप जरा सोचिए...
आप घर से ट्रैन पकड़ने के लिए निकलते है,और रास्ते में ऑटो वाला आपको आधे रास्ते में उतार देता है, ये कहकर की आपको दूसरा ऑटो पकड़ा देते है..2 पैसेंजर लेकर हम कंहा जाए..आप उससे उलझ जाते है..और कहते है कि स्टेशन नही जाना था तो पहले ही बोलना था ना.. ऑटो वाला अपनी गलती स्वीकारता है मगर आप तब भी उससे बहस कर रहे है..।
अंत मे आप दूसरा ऑटो पकड़ते है..मगर जब आप शहर में एंट्री करते है तो ट्रैफिक बहुत रहता है..और आपकी नजर बार-बार घड़ी पे जाता है..कंही ट्रैन छूट ना जाये..किसी तरह ट्रैफिक घटती है और आप स्टेशन पर पहुंचते है..
तो आप देखते है कि आपके सामने से ट्रेन गुजर रही है..
अब आप चाह कर भी उसे नही पकड़ सकते..।।
जरा सोचिए..अब आपके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा..।
अगर आप ऑटो वाले से न उलझ कर सीधे दूसरे ऑटो में बैठ गए होते तो,क्या आपकी ट्रैन छूटती..।।
अक्सरहाँ हम अपने विचारों को दूसरों पे थोपने के लिए उलझते है..
या फिर खुद को साबित करने के लिए दूसरों से उलझते है..
वो भी किसके सामने..जिसके सामने खुद को सत्यापित करके कुछ न मिलने वाला है..ऐसे जगह पर मौन रहना ही बेहतर है..।।
"उलझना बुरी बात नही है,मगर बात-बात पर उलझना बुरी बात है"।
"जिंदगी में अगर आगे बढ़ना है,तो अपने दुश्मनों से भी उलझने से बचें"।
प्रकृति भी हमें यही सिखाती है..
जो पेड़ आपस मे उलझते है वो क्षमतावान होते हुए भी ज्यादा ऊंचे नही उठ पाते..बांस को ही देख लीजिए।
दूसरी तरफ चीर, देवदार, रेडवुड,स्प्रूस इत्यादि येअनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करते है..महीनों बिना पानी के या फिर महीनों बर्फ से ढक्के रहते है या फिर पहाड़ो पे तेज हवाओं के झोंकाओ का सामना करते रहते है..
मगर ये किसी से उलझते नही है...इसीलिये तो ये आसमां की ऊंचाइयों को छूते है..।।
सचिन तेंदुलकर का नाम सुना है..
मुथैया मुरलीधरन का नाम सुना है..
ये दोनों क्रिकेट के महानतम बल्लेबाज और गेंदबाज है..क्यों..??
क्योंकि इसीलिए की ये अच्छे बल्लेबाज और गेंदबाज थे,नही बल्कि इन्होंने अपने कैरियर में किसी से उलझने का जोखिम नही लिया..।।
इसीलिये जितना हो सके उलझने से बचें..
खासकर ऐसे लोगों से..
जो आपके अपने है..
दूसरे,वो लोग जो आपके ऊपर छींटे उछालते है,आपके पाँव खिंचते है..क्योंकि ये बदलने वाले नही है,आप जितने इनसे उलझेंगे ये आपको उतना ही दलदल में लेते जाएंगे..और आप कभी निकल नही पाएंगे..।
तीसरे वो लोग जिनको आप जानते तक नही..जिनसे गलती तो हो गई मगर वो स्वीकारते नही ऐसे लोगों से नही उलझे..।।
क्या उलझे ही नही..??
उलझे..अपने और समाज के अधिकार के लिए,
उलझे..अपने उन्नति के लिए..
उलझे..अपने आत्मसम्मान के लिए(उससे नही जो आपको जानता ही नही)
उलझे..एक बेहतर विश्व के निर्माण के लिए..
उलझे..उसी से,जो आपके स्तर का..बाकी को माफ कर दे या माफी मांग ले..।।
यही है जिंदगी में आगे बढ़ने की रणनीति..।।