कृष्ण नाम लेते ही इक सौम्य मुस्कान वाली छवि सामने आ जाती है।
वो स्यामल चेहरा न जाने सदियों से लोगों को आनंदित करती रही है,सबों को अपनी ओर आकर्षित करती रही है।
आखिर क्या है उसमें जिसे एक झलक देखते ही लोग मोहित हो जाते है,वो अपना सुध-बुध सब खो जाते है,ओर उसमे ही समाहित हो जाते है।।
हमें ये जानना होगा कि क्यों कृष्ण का व्यक्तित्व इतना विराट हुआ।
मृत्यु पे विजय।
सबसे पहले उनके जन्म लेने की परिघटना से ही शुरू करते है।
एक ऐसा बच्चा जिसे गर्भ में आते ही दिन रात मृत्यु का सामना करना पड़ रहा है।
ओर जन्म लेते ही वो अपने माँ-बाप से अलग हो जाता है।
ओर ज्यों-ज्यों बड़ा होता है,त्यों-त्यों मृत्यु का साया बड़ा होता जाता है,कभी पूतना के रूप में तो कभी कालिया नाग के रूप में मगर वो इन सभी साये को पीछे छोड़ते गए।
ओर इक समय ऐसा आया जब साक्षात मृत्यु से साक्षात होने वाला था और वो भी किससे मृत्यु रूपी मामा से ही दोनों को ही मालूम था इक की मृत्यु होने वाली है,कृष्ण ने मृत्यु के भय को पराजित करके कंस पे विजय पाई।
सबसे बड़ा त्यागी
मुझे नही लगता कि उनके इतना कोई त्याग किया होगा।
जन्म लेते ही अपने माँ-बाप से दूर से होना पड़ा,जिसके प्यार से 9 महीने तक सरोबार हो रहा था।
जब वो सिर्फ 11 साल 5 महीने के थे तब उन्हें उन माँ-बाप को छोड़ना पड़ा जिसने उसका लालन-पालन किया,सिर्फ लालन-पालन ही नही उसे सींचा उसके व्यक्तित्व की नींव गढ़ी,
उसे छोड़ना पड़ा जिसने उसे बोलना,चलना सिखाया,उसे छोड़ना पड़ा जिसे वो बेइंतहा प्यार करते थे,जिसके बगैर एक पल नही रह सकते थे।
इस उम्र में उन दोस्तों का साथ छोड़ना पड़ा जो उनके उत्साह और उमंग का हिस्सा था।
उन्हें वो गाँव छोड़ना पड़ा जिसकी मिट्टी की खुश्बू उनके सांसो में दिन रात महकती रही।
उन्हें उन गायों का साथ छोड़ना पड़ा,
उस उपवन ओर यमुना तट का साथ छोड़ना पड़ा,
जंहा उन्होंने उनके साथ जिंदगी के वो पल गुजारे,
जो उनकी स्मृति से कभी नही हट सकती।
अपनी उस प्रिय सखा का साथ छोड़ना पड़ा
जिसके पल न वो ओर न ही उनके बिना ये रह सकते थे।
उस राधा का साथ छूटा,जिसकी सांसे उनसे ओर उनकी सांसे इनसे जुड़ी हुई थी ।
वो सब कुछ छुटा,
जो कुछ पल तक अपना था,
ओर अब सब कुछ पराया हो गया,
वो माँ-बाप,
वो ग्वाल-बाल,
वो नदी-उपवन,
गाँव, पर्वत,पठार सब कुछ,
कुछ क्षण में ही पराया हो गया।
जब जन्म देने वाली माता से प्यार पाने का समय आया तो शिक्षा पाने गुरुकुल चले गए।
जब गुरुकुल से आये तो परिवार राज-पाट का सिर पे बोझ आ गया,उसे सुदृढ़ करने में लग गए।
जब ये सुदृढ़ हो ही रहा था कि पड़ोसिया की दिन-प्रतिदिन के कलह से निपटने के लिए बसे बसाये साम्रज्य को छोड़ कर पूरे प्रजा को लेकर द्वारका चले गए।
फिर से एक नई यात्रा शुरू की।
जब विवाह का समय आया तब ऐसी करुण भरी स्त्री का पत्र मिला जिसे वो जानते तक नही थे बिना कुछ सोचे उसके सुरक्षा के लिए चले गए।
ओर उन्हें उस परिस्थिति से उबारा ओर उससे व्याह किया,बिना किसी ढोल-मृदंग,ओर नाच-गान के वो सारे उत्साह और सपने को त्याग किया,जो एक युवा संजोता है।
जब महाभारत युद्ध शुरू हुआ तब उन्होंने अपने मान-सम्मान को भी दांव पर लगा कर शांति दूत बन कर गए।
जब उनके प्रस्ताव को नही स्वीकार किया गया तब युद्ध की रणभेरिया बज उठी उस परिस्थिति में भी दोनों पक्ष से आये मदद के लिए आये आगंतुक को निराश नही किये।
वो एक पक्ष का सारथी होना स्वीकार किये और अपने सैन्य ताकत को भी दूसरे पक्ष से लड़ने के लिए भेज दिए।
ये कैसी स्थिति रही होगी जब एक राजा अपने सैनिक को अपने सामने ही मरते देख रहा हो और वो चाह कर भी कुछ नही कर सक रहा हो।
जब युद्ध समाप्त हुआ तब इन्हें ही युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए इन्हें पूरे कुल का विनाश होने का श्राप स्वीकारना पड़ा,वो भी अपनी अनुमति से ।
प्रेम की परिभाषा गढ़ी।
इन्होंने प्रेम को ऐसा आयाम दिया जिसे कोई नही दे पाया।
निस्वार्थ प्रेम उनसे जिससे कुछ मिलने वाला नही है,अगर मिलने वाला है तो सिर्फ प्रेम इसके सिवा कुछ भी नही।
इन्होंने प्रेम को इतना विस्तारित किया जिसमें ये प्रकृति समाहित हो सकती है।
इन्होंने किसी के तन से नही मन से प्रेम किया,इन्होंने सिर्फ उन्हींसे नही प्रेम किया जो इनसे किया इन्होंने उनसे भी किया जो इनसे नही करते थे।
"इन्होंने प्रेमी-प्रेमिका की नई परिभाषा गढ़ी, प्रेमी-प्रेमिका के जिस्म पे अधिपत्य जमाना प्रेम नही है,बल्कि उसके मन पे अधिपत्य जमाना ही सच प्रेम है"।
प्रेम इक ऊर्जा है,जो आपको शिखर पे पहुचायेगा,ओर आपको खाई में भी गिरायेगा,इसलिए इस ऊर्जा का इस्तेमाल हमेशा सोच कर करें, जो आपको ऊँचाई पे पहुचाये वही सच्चा प्रेम है,जो खाई में गिराए वो प्रेम हो ही नही सकता।।
इन्होंने प्रेम को उस पराकाष्ठा पे पहुँचाया जंहा सब पहुचना चाहते है मगर वो प्रेम को समझ नही पाते।।
मित्रता।।
इन्होंने मित्रता की नई परिभाषा गढ़ी।
"मित्र रंग-रूप,जात-पात,लाभ-हानि देख कर कभी हो ही नही सकती,अगर वो होता है तो वो क्षणभंगुर है"।
मित्रता कभी जान-पहचान वालों से हो ही नही सकता,अगर हो जाये तो समझ लेना वो स्वार्थवश है।
क्योंकि "मित्र" शब्द से ही ये तात्पर्य होता है कि "में ओर दूसरा"।ये दूसरा कौन होगा कंहा होगा किस मोड़ पे होगा ये किसी को पता नही।इसीलिये तो ये मित्र है।
मित्र वो है,जो तुम्हारे सफर को अपना बना ले,
जो तुम्हारे दुःख को अपना बना ले,
जो अपने घर को तुम्हारा बता दे,
जो अपना सब कुछ तुम्हारे लिए न्यौछावर कर दे,तुम्हारा बता के।
सच मे वही मित्र है,
जिसके अंदर स्वार्थ जगे भी तो अपने मित्र के लिए,
दुर्भावनाएं जगे भी तो अपने लिए।
सच मे वही मित्र है।
कृष्ण ने मित्रता को उसी पराकाष्ठा पे पहुँचाया।
मगर हम आप किसी के पास जाने से भी पहले लाभ-हानि,अच्छा-बुरा सोच के जाते है।
अगर आपने ऊपर लिखी पंक्तियों को पढा है,तो जरा सोचें।।
क्या हमारे आपके ऊपर ऐसी परिस्थितिया आती है तो क्या हम उसका सामना डट कर करते है।
नही ना...?
कृष्ण इसलिय भगवान नही बने की वो विष्णु के अवतार थे,
वो इसलिये भगवान बने की उन्होंने परिस्थितियों का सामना किया।।
इन्हें इतना विराट इनकी परिस्थिति ने बनाया।।
इसलिय परिस्थितियों का सामना करें, न कि उससे घबरा कर उससे भागे।
कृष्ण की विराटता का यही रहस्य है कि उन्होंने परिस्थितियों का सामना ही नही किया बल्कि उसका स्वागत किया।।
ओर हम क्या कर रहे है,सिर्फ उन्हें पूज रहे है,उनसे कुछ सीख नही रहे है।
तो ऐसी पूजा व्यर्थ है।।
आये उनसे कुछ सीखे,ओर अपने चरित्र को भी विराट बनाये, यंही उनके प्रति सच्ची श्रद्धा और पूजा होगी।।