आपने कभी सोचा है कि गुरु पूर्णिमा आखिर आसाढ़ माह में ही क्यों मनाया जाता है..??
आसाढ़ माह की पूर्णिमा बादलों से ढकी होती है..
ये अंधकार रूपी बादल शिष्य है..
जिसे गुरु रूपी चंद्रमा की रोशनी उस अंधकार को दूर करती है..।।
गुरु की उपमा चन्द्रमा से ही क्यों कि गई है..??
चंद्रमा की अपनी रोशनी नही होती है,वो सूर्य की रोशनी लेकर पृथ्वी पर बिखेरती है..जो हमें शीतलता,माधुर्यता का अहसास दिलाती है..।।
यंहा सूर्य भगवान स्वरूप है,जो हमेशा एक स्वरूप में होता है,मगर उसके ताप का परिणाम अलग-अलग होता है..।
मगर गुरु रूपी चंद्रमा अमावश की अंधकार से होकर गुजरता है,और पूर्णिमा के प्रकाश के रूप में चमकता है..
शिष्य जिस अवस्था मे होते है,उस अवस्था से गुरु को भी गुजरना होता है,इसीलिए वो अपने शिष्य के बारे में सबकुछ जानते है..।।
कबीरदास जी कहते है-
" गुरु,गोविंद दोऊ खड़े,काके लागे पाऊ
बलिहारी गुरु आपने,गोविंद दियो मिलाय"।।
गुरु दो शब्दों से मिलकर बना है- गु+रु
यंहा गु मलतब अंधकार होता है
और रु मतलब अंधकार दूर करने वाला..।।
हमारे जिंदगी से अंधकार रूपी बादल तब तक नही छटेगी जबतक गुरु की शीतलता रूपी रोशनी हमपे नही पड़ेगी..।।
आज भागदौड़ भरी जिंदगी में हम गुरु को भूल गए है..
हम शिक्षक,परिशिक्षक,अध्यापक,प्रोफेसर, मोटिवेशनल स्पीकर, कोच को ढूंढ रहे है,जो हमारे जिंदगी को आसान तो बना रहे है,मगर हमारे जिंदगी से अंधकार को दूर नही कर पा रहे है..
जिसे हम आज गुरु मानने की होड़ में लगे है..वो आज खुद मीडिया,सोशल मीडिया के माध्यम से प्रकाशमान है,उनकी अपनी आभा है ही नही..
अगर आज हमें सच्चा गुरु मिल भी जाये तो हम उन्हें स्वीकार नही कर पाएंगे..
क्योंकि हममें स्वयं वो योग्यता है ही नही..।
क्योंकि एक गुरु को शिष्य चाहिए ...
और हममें शिष्य की योग्यता है ही नही..
शिष्य मतलब समपर्ण,समर्पण इतना कि शीश तक चढ़ाने को जो न हिचके, वही शिष्य है..
क्या हम में वो समर्पण है..??
आज हम शिष्य की जगह छात्र,विद्यार्थी,ग्राहक,क्लाइंट, इत्यादि बन गए है..।।
मगर जब हम थक-हार जाते है,और अंतर्मन से आवाज निकलती है, तो गुरु की शीतलता हमें अवश्य प्राप्त होती है..।
क्योंकि गुरु का स्थान कोई ले ही नही सकता,क्योंकि गुरु का कोई पयार्यवाची है ही नही..।।
"गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः"॥