मेरी पहचान क्या है,वो ढूंढने चला हूँ,
मेरी राह क्या है,उसे ढूंढने चला हूं,
भला कोई बताए,क्या ढूंढने से वो मिला है..जो है ही नही..
न मेरी पहचान है,न ही मेरी राहें है..।।
तो फिर मैं करू क्या..??
जो है नही उसे बनाने का प्रयत्न करें..
चाहे पहचान हो,या फिर राहें हो..
कब तक यू ही दूसरों के पहचान से जाना जाऊ,
कब तक यू ही दूसरे के बनाये राहें पे चलता जाऊ..।।
क्या मेरी जमीर मर चुकी है.. या फिर हमने ही मार दिया है..
इसिलिय तो खामोश दुसरो के पहचान को ओढ़े हुए दूसरों के बनाये राहों पे चला जा रहा हूँ...
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