थक चुका हूं मैं,
सच कह रहा हूँ
मर चुका हूं मैं..।।
सच कह रहा हूँ,
मैं बस, जिंदा बोझ सा बन के रह गया हूँ..
एक चमत्कार के आस में जीवन व्यतीत कर रहा हूँ,
सच कह रहा हूँ,मर चुका हूं मैं....
सच कह रहा हूँ..
आधे से ज्यादा जिंदगी जाया कर चुका हूं मैं..
बची हुई उम्र को भी जाया करने की और बढ़ा जा रहा हूँ मैं..
सच कह रहा हूँ मैं,मर चुका हूं मैं...
अब कोई उम्मीद नही है किसी से..
सबके उम्मीदों पे,
पानी फेर दिया है मैंने..
कइयों के सपनों के साथ खिलवाड़ किया है मैंने..
अपने ही हाथों से,स्वयं का सत्यानाश किया है मैंने..
सच कह रहा हूँ,मर चुका हूं मैं..
सांस चलने से कोई जिंदा नही होता...
ना ही हांड-मांस की गठरी को ढोकर कोई जिंदा होता..
जिंदा लोगों की पहचान तो है,
नित नए परिवर्तन लाकर जिंदगी में आगे बढ़ते रहना..
सच कह रहा हूँ मैं,मर चुका हूं मैं..
मैं तो कब का मर चुका हूं...
बस सांसे चल रही है..
अगर जिंदा भी हूँ तो 1-2 लोगों के लिए..
अन्यथा मैं तो कब का मर चुका हूं..।।
सच कह रहा हूँ,मर चुका हूँ मैं..
अब लगता है,थक चुका भी हूँ..
क्या इसी तरह,मर के मरना है..
या फिर अच्छी तरह से मरना है..
ये भी नही निर्णय कर पा रहा हूँ मैं..
सच कह रहा हूँ मर चुका हूं मैं..
मैं इस तरह से मर कर मृत्यु को शर्मसार नही करना चाहता..
मैं तो इस तरह मरना चाहता हूं की,
मृत्यु मेरी आलीगं को आतुर हो..
जब मेरा मृत्यु आलीगं करें..
तो मृत्यु भी हर्षित हो..
पूरा फ़िजा पुष्पित और ये जंहा सुगंधित है..।।
मैं इस तरह नही मरना चाहता..
मैं इस तरह असफलता का बोझ नही ढोना चाहता..
मैं अपनी असफलता को सफलता मैं परिवर्तित करूँगा..
मैं अपनी मृत्यु को उत्सव मैं परिवर्तित करूँगा..
मैं अपने प्रयास से स्वयं का निर्माण करूँगा..।
मैं सच कह रहा हूँ..
मैं फिर से एक नया शुरुआत करूँगा..
अपनी मृत्यु का बहुत विस्तार करूँगा..
मैं यू ही अब अपने जीवन को जाया नही करूँगा..
मैं स्वयं का निर्माण करूँगा..।।
सच कह रहा हूँ..
मैं फिर से एक शुरुआत करूँगा..।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें